Monday, January 24, 2011

दोपहर होने को आई




आकाश इतना छोटा तो नही

और इतना थोड़ा भी नही .

सारी ज़मीन ढांप ली साहिब

मेरा इतना सा आँगन

क्यूँ नही ढांप ले सकता ..

दोपहर होने को आई

और इक आरज़ू

धूप से भरे आँगन में

छाँव के छीटे फेंकती है

और कहती है

ये आँगन मेरा नही ..

यहाँ तो बस

पाँव रखने को छाँव चाहिए मुझे ..

ये घर भी मेरा नही

मुझे उस घर जाना है

जिस घर मेरा आसमान रहता है .

.मेरा आकाश बसता है !

8 comments:

Mithilesh dubey said...

सुंदर अभिव्यक्ति लगी , बढिया रचना के बधाई ।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

प्रभावी अभिव्यक्ति ....

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|

VenuS "ज़ोया" said...

aap sab ko yahaan tak aane aur gulzaar ji ke is beshkimati nazraane ko saraahne ke liye tah e dil se shukriya
take care

आशीष मिश्रा said...

सुंदर अभिव्यक्ति

सहज समाधि आश्रम said...

एक बेहतरीन रचना ।
काबिले तारीफ़ शव्द संयोजन ।
बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति ।

दिव्या अग्रवाल said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 18
नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर