तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
जुबां पर रख ली है देखो मैंने
ये कतरा-कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ
पिघल पिघलकर गले से उतरेगी
जुबां पर रख ली है देखो मैंने
ये कतरा-कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ
पिघल पिघलकर गले से उतरेगी
आखरी बूँद दर्द की जब
मैं साँस आखरी गिरह को भी खोल दूँगा
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मैं साँस आखरी गिरह को भी खोल दूँगा
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4 comments:
अरे वाह...!
यह रचना तो बहुत मखमली है!
shurkiyaa mayank ji..yahaan taak aane ke liye
बेहतरीन प्रस्तुति !
लाजवाब प्रस्तुति..💐💐🍀👏
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