Saturday, April 9, 2011

रात चाँद और मैं

उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात  चाँद  और  मैं  तीनो  ही  बंजारे  हैं
तेरी  नाम  पलकों  में  शाम  किया  करते  हैं  
कुछ  ऐसी  एहतियात  से  निकला  है  चाँद  फिर
जैसे  अँधेरी  रात  में  खिड़की  पे  आओ   तुम  


क्या  चाँद  और  ज़मीन   में  भी  कोई  खिंचाव  है  
रात  चाँद  और  मैं  मिलते  हैं  तो  अक्सर  हम
तेरे  लेहज़े  में  बात  किया  करते  हैं 
  
सितारे  चाँद  की  कश्ती  में  रात  लाती  है   
सहर   में  आने  से  पहले  बिक  भी  जाते  हैं


बहुत  ही  अच्छा  है  व्यापार  इन  दिनों  शब  का  
 बस  इक  पानी  की  आवाज़  लपलपाती   है
की  घात  छोड़  के  माझी   तमामा  जा   भी  चुके  हैं 


चलो  ना  चाँद  की  कश्ती  में  झील  पार  करें


रात  चाँद  और  मैं अक्सर  ठंडी  झीलों   को
 डूब  कर  ठंडे  पानी  में  पार  किया  करते  हैं