Monday, January 24, 2011

दोपहर होने को आई




आकाश इतना छोटा तो नही

और इतना थोड़ा भी नही .

सारी ज़मीन ढांप ली साहिब

मेरा इतना सा आँगन

क्यूँ नही ढांप ले सकता ..

दोपहर होने को आई

और इक आरज़ू

धूप से भरे आँगन में

छाँव के छीटे फेंकती है

और कहती है

ये आँगन मेरा नही ..

यहाँ तो बस

पाँव रखने को छाँव चाहिए मुझे ..

ये घर भी मेरा नही

मुझे उस घर जाना है

जिस घर मेरा आसमान रहता है .

.मेरा आकाश बसता है !