Friday, August 2, 2013

हाल-चाल ठीक-ठाक है

हाल-चाल ठीक-ठाक है
सब कुछ ठीक-ठाक है
बी.ए. किया है, एम.ए. किया
लगता है वह भी ऐंवे किया
काम नहीं है वरना यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है

आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है

और क्या कहूं?
छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी
देती है अपा गुजारा यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है

गोल-मोल रोटी का पहिया चला
पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला
रोटी को बेचारी को चील ले गई
चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला

और क्या कहूं?
मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा
जीने की फुरसत नहीं है यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
हाल-चाल ठीक-ठाक है

Wednesday, August 8, 2012

.. वो आई थी क्या !

मैं रोज़गार के सिलसिले में
कभी कभी उसके शहर जाता हूँ
तो गुज़रता हूँ उस गली से
वो नीम तारिक़ सी गली
और उसी के नुक्कड़ पे
ऊँघता सा पुराना खंभा
उसी के नीचे तमाम शब् इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रोशनी की छड़ी को टेके
वो खम्भा अब भी वहीँ खड़ा है

फितूर है ये मगर मैं खम्भे के पास जाकर 

नज़र बचाकर मोहल्ले वालों की
पूछ लेता हूँ आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद भी आई तो नहीं थी
.. वो आई थी क्या !


~ गुलज़ार

Saturday, March 31, 2012

मैने कहा उसे रोक कर....






एक सुबह इक मोड़ पर
मैने कहा उसे रोक कर
हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर

रोज़ तेरे जीने के लिये,
इक सुबह मुझे मिल जाती है
मुरझाती है कोई शाम अगर,

तो रात कोई खिल जाती है
मैं रोज़ सुबह तक आता हूं
और रोज़ शुरु करता हूं सफ़र

हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर


तेरे हज़ारों चेहरों में
एक चेहरा है, मुझ से मिलता है
आँखो का रंग भी एक सा है
आवाज़ का अंग भी मिलता है
सच पूछो तो हम दो जुड़वां हैं
तू शाम मेरी, मैं तेरी सहर

हाथ बढ़ा ए ज़िंदगी
आँख मिला के बात कर

मैने कहा उसे रोक कर.

टांग पे टांग रख के चांद



एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था



Friday, September 9, 2011

और फिर यूँ हुआ

और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
और फिर यूँ हुआ, रात एक ख्वाब ने जगा दिया
फिर यूँ हुआ चाँद की वो डली घुल गयी
और यूँ हुआ, ख्वाब की वो लड़ी खुल गयी
चलती रही बेनूरियां, चलते रहे अंधेरों की रौशनी के तले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले

और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
और फिर यूँ हुआ, सुबह की धूल ने उड़ा दिया
फिर यूँ हुआ, चेहरे के नक्श सब धुल गए
और यूँ हुआ, गर्द थे गर्द में रुल गए
तन्हाईयाँ ओढ़े हुए, गलते रहे भीगे हुए आँसुओं से गले
फिर नहीं सो सके, एक सदी के लिए हम दिलजले
एक सदी के लिए हम दिलज

Thursday, July 21, 2011

सूरज फिर से जलने लगे !



गुलज़ार साहब, वर्तमान ब्रह्माण्ड के भविष्य पर -


थोड़े से करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद ना डूबेगा
और कोई ज़मीं ना उभरेगी
दबे बुझे एक कोयले सा
टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका
मद्धम खाकीस्तरी रोशनी में

मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर
कागज़ पे लिखी एक नज़्म कहीं
उड़ते उड़ते सूरज में गिरे
और सूरज फिर से जलने लगे !


Saturday, April 9, 2011

रात चाँद और मैं

उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात  चाँद  और  मैं  तीनो  ही  बंजारे  हैं
तेरी  नाम  पलकों  में  शाम  किया  करते  हैं  
कुछ  ऐसी  एहतियात  से  निकला  है  चाँद  फिर
जैसे  अँधेरी  रात  में  खिड़की  पे  आओ   तुम  


क्या  चाँद  और  ज़मीन   में  भी  कोई  खिंचाव  है  
रात  चाँद  और  मैं  मिलते  हैं  तो  अक्सर  हम
तेरे  लेहज़े  में  बात  किया  करते  हैं 
  
सितारे  चाँद  की  कश्ती  में  रात  लाती  है   
सहर   में  आने  से  पहले  बिक  भी  जाते  हैं


बहुत  ही  अच्छा  है  व्यापार  इन  दिनों  शब  का  
 बस  इक  पानी  की  आवाज़  लपलपाती   है
की  घात  छोड़  के  माझी   तमामा  जा   भी  चुके  हैं 


चलो  ना  चाँद  की  कश्ती  में  झील  पार  करें


रात  चाँद  और  मैं अक्सर  ठंडी  झीलों   को
 डूब  कर  ठंडे  पानी  में  पार  किया  करते  हैं

Friday, February 11, 2011



मकान की

 उपरी मंजिल पे अब कोई नहीं रहता,

वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी, अब ऊपर नहीं जाती

मकान की उपरी मंजिल पे अब कोई नहीं रहता

वहां कमरों में, इतना याद है मुझको,
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे.
बहुत से तो उठाने , फेंकने , रखने में चूरा हो गए .

वहां एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता , वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था

उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं ,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं,
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का,
फ्रेज़र से ख़रीदा था , मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं , सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं

उसी मंजिल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था , हवा फिर टेढा कर जाती

बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे[Cliche] लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा , पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे


मेरी मंजिल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है.

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती , वहां एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.


और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊं .

मकान की उपरी मंजिल पे कोई नहीं रहता..



. 

Monday, January 24, 2011

दोपहर होने को आई




आकाश इतना छोटा तो नही

और इतना थोड़ा भी नही .

सारी ज़मीन ढांप ली साहिब

मेरा इतना सा आँगन

क्यूँ नही ढांप ले सकता ..

दोपहर होने को आई

और इक आरज़ू

धूप से भरे आँगन में

छाँव के छीटे फेंकती है

और कहती है

ये आँगन मेरा नही ..

यहाँ तो बस

पाँव रखने को छाँव चाहिए मुझे ..

ये घर भी मेरा नही

मुझे उस घर जाना है

जिस घर मेरा आसमान रहता है .

.मेरा आकाश बसता है !

Friday, December 24, 2010

from "Raat Pashmine ki"

मुझे खर्ची  में पूरा  एक दिन , हर रोज़ मिलता है
मगर  हर रोज़ कोई छीन लेता है ,
झपट लेता है, अंटी  से
कभी  खीसे  से  गिर  पड़ता  है  तो  गिरने  की
आहट  भी  नहीं  होती ,
खरे  दिन  को  भी  खोटा  समझ  के  भूल   जाता  हूँ  में

गिरेबान  से  पकड़  कर  मांगने  वाले  भी  मिलते  हैं
"तेरी  गुजरी  हुई  पुश्तों  का  कर्जा  है , तुझे  किश्तें  चुकानी  है "

ज़बरदस्त  कोई  गिरवी  रख  लेता  है , ये  कह  कर

अभी  2-4 लम्हे  खर्च  करने  के  लिए  रख  ले ,
बकाया  उम्र  के  खाते  में  लिख  देते  हैं ,
जब  होगा , हिसाब  होगा

बड़ी  हसरत  है  पूरा  एक  दिन  इक  बार  मैं
अपने  लिए  रख  लूं ,
तुम्हारे  साथ  पूरा  एक  दिन  
बस  खर्च
करने  की   तमन्ना  है  !!

Friday, December 17, 2010

ग़म की डली



तुम्हारे ग़म की डली उठाकर
जुबां पर रख ली है देखो मैंने
ये  कतरा-कतरा पिघल रही है
मैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँ

पिघल पिघलकर गले से उतरेगी
आखरी बूँद दर्द की जब
मैं साँस आखरी गिरह को भी खोल दूँगा
.
.

Friday, December 3, 2010


From ...Aaandhii...................aawsssssssssmmmm


बर्सौं  बाद  यूँ  घूमने  निकली  हूं
ऐसा  लगता  है  की  वो  किसी  और  सदी   की  बात  थे

शायद  ये  उन  दिनों  की  बात  होगी ..जब  ये  इमारत  अभी  उजारी  नही  थी  


पिछले  किसी  जनम  की  बात  ही  तो  लगती  है
एक  काम  करें ........
जब  तक  तुम  यहान  हो  रोज़  घर  पे  खाने  के  लिए  तो  आया  ही  करोगी

खाने  के  बाद  घुमने  निकल  आया  करंगे ...कम  से  कम  ये  इमारत  कुछ  दिनों  के  लिए  तो
बस  जायेगी

तुम्हारी  शाल   कहाँ  है


अरे  ना  ना ....
तुम  नही  बदलोगी ...............
तेरे  बिना  जिंदगी  से  कोई  शिकवा  तो  नही  .शिकवा  नही
तेरे  बिना  ज़िन्दगी  भी  लेकिन ... जिंदगी  तो  नही  .....जिंदगी  नही

काश  ऐसा  हो  के  तेरे  क़दमों  से  चुन  के  मंजिल  चलें
और   कहीं  दूर   कहीं ,..तुम  गर  साथ  हो ..मंजिलों  की  कमी  तो  नही

सुनो  आरती  ये  जो  फुल्लों  की   बेले  नज़र  आती  है  ना ......दरअसल  ये  बेले  नही  है ...अरबी  में  आयतें  लिखी  हैं ..इसे  दिन  के  वक़्त  देखना  चाहिए ......बिलकुल  साफ़  नज़र  आती  हैं ..दिन  के  वक़्त  ये  सारा  पानी  से  भरा  रहता  है ...दिन  के  वक़्त  जब  ये  फुहारे ...
मजाक  क्यूँ   कर  रहे  हो ..कहाँ  आ  पाउंगी  मैं  दिन  में

ये  जो  चाँद  है  ना  इसे  रात  में  देखना ..ये  दिन   में  नही  निकलता .

ये  तो  रोज़  निकलता  होगा
हाँ  लेकिन  बीच  में  अमावस  आ  जाती  है ..वैसे  तो  अमावस  15 दिन  की  होती  है ...लेकिन
इस  बार  बहुत  लम्बी  रही ..............

9 बरस  लम्बी  थी  ना .....


जी  में  आता  है  तेरे  दामन  में  सर  छुपा  के  हम  रोते  रहें
तेरे  भी  आँखों  में  आंसुओं   की  कमी  तो  नही

तुम  जो  कह  दो  तो  आज  की  रात  चाँद  डूबेगा  नही ...रात  को  रोक  लो
रात  की  बात  है  ...और  ज़िन्दगी  बाकी  तो  नही .....

तेरे  बिना  जिंदगी  से  कोई  शिकवा  तो  नही  .शिकवा  नही
तेरे  बिना  ज़िन्दगी  भी  लेकिन ... जिंदगी  तो  नही  .....जिंदगी  नही

Monday, August 23, 2010

अख़बार


  
सारा दिन में खून में लथपथ रहता हूं
सारे दिन में सुख सुख के काला पड़ जाता है खून
पपडी सी जम जाती है
खुरच खुरच एक नाखूनों से
चमड़ी छिलने लगती है
नाक में खून की कच्ची बू
और कपडों पर कुछ काले काले चकते से रह जाते हैं

रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर
खून में लथपथ आता है !
                                                                      -------गुलज़ार .

पुखराज़



जरा सी पीठ गर नंगी होती
फटे हुए होते उसके कपड़े
लबों पे गर प्यास की रेत होती
और एक दो दिन का फ़ाका होता
लबों पे सुखी हुई सी पपड़ी
जरा सी तुमने जी चिल्ली होती
तो खून का इक दाग़ होता .

तो फिर ये तस्वीर बिक ही जाती !
                                                          . .......गुलज़ार


Tuesday, August 17, 2010

ओ दिल बंजारे जा ऱे...mayamemsahab



ओ  दिल बंजारे जा ऱे  
खोल डोरियाँ सब खोल दे
ओ दिल बंजारे ....जा ऱे
धुप से छनती छाँव आँख में भरना चाहूँ
आँख से छनते सपने होंठ से चखना चाहूँ  
ये मन संसारी
बोले इक बारी अब डोल दे....
ओ दिल बंजारे जा ऱे
खोल डोरियाँ सब खोल दे

 







दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन


दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
बैठे रहें ......तस्सवुर ए जाना ........किये हुए
या गर्मियौं  की रात जो .........पुरवाइयां चलें
ठंडी ......सफ़ेद चादरों ......पे जागे ...देर तक
तारों को .........देखते रहें.... छत  पर पड़े हुए

.....
.....

इक हसीं निगाह का..maya memsaahib



.
इक हसीं निगाह का मुझपे साया है 
जादू है जूनून है कैसी माया है....ये माया है ...
तेरी नीली आँखों के भंवर बड़े हसीन हैं
डूब जाने दो मुझे ..ये खाव की ज़मीन है 
उठा दो अपनी पलकों किओ ये पर्दा क्यूँ गिराया है
.
.
  

खिड़की में कटी हैं सब रातें


फूलों की तरह लब खोल कभी
खुशबू की जुबां में बोल कभी !

अलफ़ाज़ परखता रहता है
आवाज़ हमारी तोल कभी !

खिड़की में कटी हैं सब रातें
कुछ चौरस और  कुछ गोल कभी !

ये दिल भी यार ज़मीन की तरह
हो जाता है डावांडोल  कभी !!
.




शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं

.

खुशबू  जैसे लोग मिले अफ़साने में 
इक पुराना ख़त खोला अनजाने में ! 

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगादी आने में !

दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता हूं वीराने में !

जाने किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़ा लेता है जो दोहराने में !!
.



जितने भी तय करते गये बढ़ते गये ये फासले ...libaas

.
सिली हवा छू गयी सिला बदन छिल गया
नीली नदी के परे गीला सा चाँद खिल गया !

तुमसे मिली जो जिंदगी हमने अभी बोई नही
तेरे सिवा कोई न था तेरे सिवा कोई नही !

जितने भी तय करते गये बढ़ते गये ये फासले
मीलों से दिन छोड़ आये सालों से रात लेके चले !
.




mayamemsaahab

Monday, August 16, 2010

humne dekhi he......khaamoshi

टूटी हुई चूड़ियों से जोडूँ ये कलाई मैं



 
रोज़ - रोज़ आँखों तले .......इक ही सपना चले
रात भर काज़ल जले
आँख में ....जिस तरहा.......खाव का दिया जले
रोज़ रोज़ आँखों तले...
जब से तुम्हारे नाम की मिसरी होंठ  लगाई है
मीठा सा गम है और मीठी .......सी तन्हाई है...

.

...

jaado ki narm dhoop aur....






Friday, August 13, 2010

गुलज़ार ...आपके लिए............





मैं कैसे बताऊँ के तुम मेरे लिए क्या हो
प्यासे चातक की वो बुझी प्यास हो
जो स्वाति की पहली बूँद के चखने  से हो

मैं कैसे बताऊं तुम मेरे लिए क्या हो
दुनिया भर से उलझते- २ झगड़ते- २
थक के जो सर टिकाते ही पा जाऊं
माथे पे उस सुबुक-शफीक लम्स से हो !


मैं कैसे बताऊं तुम ..............................
अज़ीयत ए हस्ती ने नाज़िस किया दिल
तेरे कलाम से धोया तो पाकीज़गी पायी
मेरे लिए तो तुम आब ए ज़मज़म से हो
तुम मेरे लिए क्या हो ............................

अक्सर जली हूं खुद पकड़ हाथों में शोले
मुझे लगाये मलहम और पौछें आंसूं भी
मेरे लिए तो तुम अह्बाबी हाथों से हो

मैं कैसे बताऊं तुम मेरे लिए क्या हो !!

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